उम्मीद की बुढ़िया
पर साल जब लौटी पुरवा
देकर न्योता थीं इस बार।
संबंधों के सूने आँगन की
आशाकलिका पर था निखार।।
नगपति के पावों से पिघली
पुरवा यों हर साल थी निकली
श्वासों मे भर कर विश्वास
आशा रथ पर होती सवार।।
दुर्गम पथ दोहरी थी दूरी
लू झुलसाए सपन सिंदूरी
बरसों पहले रूठी बहिना
शायद बात सुने इस बार।।
कदम-कदम वो पश्चिम नापे
खंडहर कंकालों को ढ़ाँपे
कोटि कराहें रिसती रूहें
भावों का कब सिमटे ज्वार।।
मरुस्थलों की खुश्की खाती
धर्मस्थलों से झिड़की पाती
सरहद की नोकों से बचती
खटकाती पछुवा का द्वार।।
पछुवा के अतिसन्मान के पीछे
गहरे घाव थे आँखें मीचे
चिलमन से सटकर बैठी थी
उम्मीद की बुढ़िया पाँव पसार।।
आशा अनुराग का ताना बाना
प्रीत के सूत से बुना नज़राना
बीते बन कर साल महीने
आए गए वार त्योहार।।
कितनी बार ही कागा बोला
दादी का संदूक था खोला
अँधियारे कोनों में दुबके
'नेवरिया' पाती लाचार।।
इक तड़के जब कुंडली खोली
कोहरे में इक छवि थी डोली
ऊषा गगरी से छलका सपना
भोर रश्मियाँ लाईं उपहार।।
झिझकी सहमीं आँखें बोलीं
अंतरमन की गाँठें खोली
शिकवों और यादों का मंथन
धुल गए मन अँसुवन की धार।।
खेत खलिहान घूमीं बहनें
नदी निर्झर लगे यों कहने
बहते रहना नाम ज़िंदगी
गति ही है जीवन का सार।।
पुरखों की देहरी जब लाँघी
सुबक उठा पछुवा का प्यार।
दादी का संदूक क्या बाँटूँ
चाहूँ पोतों के सुख का आधार।।
उम्मीद की बुढ़िया की निर्दंत हँसी
हुमच उठी पकड़ एतबार।
बुझती आँखों में झिलमिला उठा
झिझके सपनों का संसार।।
(भारत पाक के सुधरते संबंधों पर लिखी गई है यह
रचना 'उम्मीद की बुढिया'। इसमें मैंने दो बहनों पुरवा और पछुवा के मिलन की कथा के
रूप में दोनों देशों के लिए आशापूर्ण भविष्य की कामना की है।)
16 जुलाई 2005
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