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सबका लेखा सम अनुपाता

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समृतियों के सागर के मोती

 

सबका लेखा सम अनुपाता

दाता देता दिल खोल कर देता
सबका हिस्सा तोल कर देता
सबको सांझी दौलत दीनी
तौल जोख तक़दीर सजाई।

पर अलग तराजू तौली हमने
असली गठड़ी न खोली हमने
मोल भाव है अलग हमारे
अलग-अलग ही थाह लगाई।

कौन कसौटी कनक कढाया
किस जौहरी हीरा मुलवाया
किसको कितना कल्पा किसने
किन धन क्या कीमत लगवाई।

सत्य का सोना चेतन चाँदी
ब्रह्म बुद्धि से काया सांधी
प्रेम शांति आनंद की मूरत
क्षमा दया सगुणों सँवराई।

ओज अरुण से शशि से सीरत
पवन से पौरुष धरा से धीरज
क्षुधा पिपासा नियति के नाती
अनुपम मानव देह बनाई।

मोह की माला नेह की नर्मी
दर्प का दानव गर्व की गर्मी
काम क्रोध विषयों में उलझा
भवसागर भँवरी उतराई।

कर्म का करघा धर्म का धागा
पीत का ताना जतन से बाँधा
काढ तू चादर ऐसी निर्मल
सत्य सरिता सलिल धुलवाई।

समदृष्टि तिन सब जग जाना
सूक्ष्म रूप सभी में समाना
सब को मंढा एक ही मूरत
सूरत भले भिन्न दीं दिखाई।

सबका लेखा सम अनुपाता
सबका सृष्टा एक विधाता
प्रभु प्रसाद, प्रतिपल पाई
अपना लेखा आप बनाई

9 मार्च 2007

 

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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