नव ऋतु का सुनिश्चित अभिनंदन
अनागत भय से कंपित मन
विश्वास की डोर पर हिलती पतंग
विभीत हृदय की साहसी सूरत पर
कैसा भय और वेदना का संगम।
शुष्क ठूँठ-सा तरु तीर पर
कोटर में पक्षी का क्रंदन
इसी पेड़ का साया जल में
मानो देख रहा मैं दर्पण।
पातहीन पतझड़ से पीड़ित
शीत हवाओं के आनन में
अपने अंतर की ऊष्मा से
देता आश्रय और आलिंगन।
निर्भय नज़र कृत पर केंद्रित है
फल से मुक्त किए सब संबंध
अडिग तपी-सा ध्यान मग्न है
नियति नदी से बाँधे बंधन।
नव प्रवाह नव नीर से सिंचित
नव ऋतु का सुनिश्चित अभिनंदन
फल फूलों से झुकें डालियाँ
पाखी पथिक को सब कुछ अर्पण।
क्षीण हो चला भयप्रद भ्रम
मन मे जागी एक नई उमंग।
कैसा भय अब अविचल है मन
विश्वास की डोर, लहराए पतंग।
16 फरवरी 2005
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