स्मृतियों के सागर के मोती
डालियाँ जो फूलों की भेजीं थी तुमने
अपलक निहारा है घंटों उन्हें मैंने।
हर गुल की खुशबू को श्वासों में टंटोला
हर पल्लव की ताज़गी को आँखों में संजोया।
इनमें कुछ फूल तेरी महक थे बसाए
कामनाओं के चमन के रंगोली सजाए।
आते ही ऊँडेला हर रंग को कुछ ऐसे
हर चोट ने पाया हो मरहम का असर जैसे।
मर्माहत भृकुटि पर तनाव कम हुआ है
ज़ख़्मों की जेबों से रिसाव कम हुआ है।
कुछ कलियाँ इनमें अभी सिर्फ़ अधखुली हैं
संकुचाई-सी कनखियों से मेरे ज़ख़्म देखती हैं।
सोचता हूँ हर चोट का भी है अलग कुछ असर
सिर्फ़ चंद का ही दर्द दिया दिखाई ऊन्हें मगर।
जिस्मी ज़ख़्म तो शायद अब समय ही सहलाएगा
स्मृतियों के सागर के मगर मोती कौन लुटाएगा।
16 फरवरी 2005
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