रेत की मुट्ठी-सा ये जीवन
रेत की मुट्ठी-सा ये जीवन
फिसलने को आतुर है कण-कण।
वक्र पगों की चाल चलता
रेत के सागर में बहता
आँधियों के इस असर में
दिशाहीन पथिक-सा हर दिन।
रेत की मुट्ठी-सा ये जीवन
भतूलों ने घर छुड़ाया
कुछ देर आसमाँ छुआया
पटक धरा वक्ष पर फिर से
याद दिलाया माँ का आँगन।
रेत की मुट्ठी-सा ये जीवन
सावन बरसा जी लगाकर
धनक धमक से गगन सजाकर
पोखर नाले भरे नीर से
नृत्य नाद संग पुलकित यौवन।
रेत की मुट्ठी-सा ये जीवन
घूँट अभी एक ही भरी थी
जलधारा हो चली बिखरी थी
नदी यहाँ थी होकर गुज़री
पर रहा प्यास से व्याकुल ये मन।
रेत की मुट्ठी-सा ये जीवन
शुष्क पात सम पल ये पसरे
बरस-बरस सावन भी बिसरे
पुरवा चुप है बरखा रूठी
अब ढीली पकड़ ढूँढे अवलंबन।
रेत की मुट्ठी-सा ये जीवन
फिसलने वाला है कण-कण।
16 फरवरी 2005
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