किस तरह
किस तरह ख़ाना ख़राब फिर रहे हैं हम जनाब
नींद में भी सो ना पाएँ देखते रहते हैं ख्वाब
वो हँसी हैं हमने माना और हैं वो पुर शबाब
हम भी उनसे कम नहीं हैं दिल के हैं यारों नवाब
दिल नहीं है अपने बस में ना ही बस में है दिमाग़
दर्द हमको दे दिए हैं इस जहाँ ने बेहिसाब
तुझको फुरसत से बनाया है ख़ुदा ने ख़ुश जमाल
फूल-सा चेहरा तेरा और मस्त आँखें लाजवाब
लोग कहते हैं शराबी ये ग़लत इल्ज़ाम है
जिस क़दर आँसू पिये हैं उस से कम पी है शराब
तू अँधेरे में छुपी है ऐ मेरी जाने ग़ज़ल
''चाँद'' हूँ आखिर तुझे मैं ही करूँगा बे-नकाब
16 अक्तूबर 2007
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