अनुभूति में
अवतंस कुमार
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कद्र-दान
मय से बोझिल रूमानी रात में
अफकारे महवश में डूबे तसव्वुर
निहाँ सरगोशी किये
चाँदनी के हम-आगोश माशूक की
जुल्फों में उलझे सितारों को चुनते-चुनते
रूखे हिजाब से दुपट्टा जो उठा
हम तो बा-खुदा परेशाँ हो गए।
लफ्ज़ हुए महफूज़, साँसें हुईं गर्म
और निगाहों का फलसफा जब
होठों पै आके सिमटा
हम तो बा-खुदा बे-इख्तियार हो गए।
जुनूने मोहब्बत में लिपट के दामने यार से
रफ्ता-रफ्ता किए इन्तेजारे सहर
जो है हर सबे फुरकत का अंजाम सहर
हम तो बा-खुदा कद्र-दान हो गए।
३१ मई २०१०
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