अनुभूति में
अवतंस कुमार
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दरमियाँ
स्याह से बोझिल कमरे में
हाथ-भर चौड़ी मेज़ों पर झुके चेहरों के समंदर बीच
टिमटिमाती मोमबत्तियों की रौशनी भर के फ़ासले।
मेज़ के एक सिरे पर तुम बैठी थीं,
अपने कुहनियों को मेज़ पर टिकाए।
और उस मद्धिम-सी रौशनी में दमकते
अपने चाँद से चेहरे को अपने हाथों में उठाए।
उसी मेज़ के दूसरे सिरे पर बैठा मैं
तुम्हारी उन्मादी आँखों में डूबते-उतराते
अपलक निहारता रहा था...
निःशब्द,
निश्छ्ल,
निस्पन्द,
बेलौस।
तुम्हारे कानों के बालियों की रुनझुन,
एपिल साइडर की गर्म चुस्कियाँ,
हवा में रोमांस बिखेरती
दालचीनी की भीनी-भीनी खुशबू,
और कुछ कहने को बेताब फड़फड़ाते होंठ।
अनायास ही तुम्हारी उँगलियों का छू जाना।
फिर तुम्हारा हौले से मेरी हथेली को चूमना।
वक्त ठहर-सा गया एकदम।
और जो दरमयाँ था टिमटिमाती रौशनियों का
पिघल कर बह गया मोम की तरह।
३१ मार्च २००८ |