अनुभूति में
अवतंस कुमार
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हादसा
अँधेरी रात में दबे पाँव किसी ने
पलीते में आग लगा दी
टूटी खिड़कियाँ, सूने दरीचे
गुमनाम गलियाँ, पथरीली राहें
हर कोना, हर लम्हा
तबाही और मातम का माहौल
सीने में खलिश, होठों पे प्यास
आँखों में जलन, दिल में अंगार
जज्बातों का गुबार फूटा
आँसुओं का सैलाब उमड़ पडा
और दिलों के ज़ख्म फिर से हरे हो उठे
टूटी खिडकियों के टुकड़ों को समेटने की कोशिश की
तो हाथ लहू-लुहान हो गए
चारदीवारी नापने की कोशिश की
तो पैरों में छाले पड़ गए
पसीना पोंछा
तो खून की बूँदें टपक पडीं
बाजू में झाँका
तो लोग नए थे
अपना अक्स आईने में देखा
तो चेहरा बदल गया था
भौचक नींद खुली और जगा मैं
हादसों की बस्ती में एक और हादसा हुआ
३१ मई २०१०
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