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  अहसास

मेरे अपनेपन का अहसास
मेरी तनहाइयाँ, मेरी मजबूरियाँ।

अमावस की काली रात में
घने वियावान जंगलों की
सुनसान पड़ी टेढ़ी-मेढ़ी, ऊबड़-खाबड़ पगडन्डियों से
अकेले गुज़रते हुए
जब न हाथ को है हाथ सूझता
और न कोई राह सूझता
तो उस वक्त मुझे
मेरे अपनेपन का अहसास हुआ
अपने अकेलेपन का आभास हुआ।

मैं कितना बेचारा सा लाचार हूँ
कि अभी तो रहगुज़र बहुत बाकी है
चलना है, कि मंज़िल अभी आधी है
मैं खुद को देता तस्कीन
बहुत की एक आसमान ज़मीन
पर मेरी दूरियाँ बाँटने को
कोई राज़ी न हुआ
तो उस वक्त मुझे
मेरे अपनेपन का अहसास हुआ
अपने भोलेपन का अहसास हुआ।

पर मैं रुका नहीं, चलता रहा
मैं ज़मीनो-फ़लक के संगम तक चला
मैं दिन और रात के मिलन तक चला
हिमालय की चोटियाँ नापीं
सागर की गहराइयाँ मापीं
मैंने हवा को वश में किया
रवि के तेज को मद्धिम किया
लोगों ने मेरी आरती उतारी, जमघट लगाए
माथा चूमा, गीत गाए
तो उस वक्त मुझे मेरे अपनेपन का अहसास हुआ
अपने बड़प्पन का अहसास हुआ।
आज जब मेरी सिर पर ताज है
मेरी आँखों में तेज है
मेरे बाजुओं में बल है
मेरा विश्वास अटल है
राह भी सरल है और मेरे संग चलनेवालों का हुजूम लगा है
तो अब मुझे मेरे अपनेपन का अहसास हुआ
इस दुनिया के खोखलेपन का अहसास हुआ।

३१ मार्च २००८

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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