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उम्र का पड़ाव

उम्र का ये कौन सा पड़ाव है
जो बाल मेरे अब सफ़ेद हो चले।
बचपना था इक खिलौने की तरह
और कभी हुए थे हम भी मनचले।।

सौ कहानियों की इक निशानी थी
वो निशानी ही मेरी कहानी थी।
आटा, गेहूँ, दाल से थे बेख़बर
सर पे चढ़के बोलती जवानी थी।।

गिरते पड़ते ही सदा तो उठते थे
रात को ही दिन सदा समझते थे।
करवटों का साथ भी था इस तरह
जैसे अधजगे से कोई स्वप्न थे।।

कैद थी अमीरी आसमानों में
और ग़रीबी सब को लूटती रही।
कैसे लिखता देश का अधूरापन
हर कदम कलम जो टूटती रही।।

लिख दिया दीवार पे कि वोट दो
बाँट दिए पर्चे झूठी बात के।
विश्वास में वो इस ज़मीं को तोलकर
लाखों टुकड़े कर गए जज़्बात के।।

अब नहीं पड़ाव कोई आएगा
अब न काला बाल मुस्कुराएगा।
अब दीवार को नया ही रहने दो
अब नहीं जज़्बात छटपटाएगा।।

9 जनवरी 2007

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