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करवट

न जाने कितनी सोच
करवट का रूप लिए
कभी इधर कभी उधर
छलाँगे मार
पलटती फिरती है।
कभी बेरोजग़ारी के
बिस्तर में
किसी नौकरी को
आवाज़ देती मिलती है करवट।
कभी किताबों के बीच
दम घोटती हुई
बच्चे की फीस को
सोचती है करवट।
कभी बीमार माँ का
इलाज खोजती है करवट,
तो कभी रंग
फीके करती है
कुँवारी बहन के
लाल जोड़े की ख़ातिर,
और कभी दांपत्य जीवन
करवट बदलता है
आधी रात के कोहरे में,
तो कभी उम्र
बदलती है करवट
सफ़ेद बालों की निशानी बनकर।
कुछ ऐसी ही करवटें
हर पल, हर उस घर में
बदली जाती हैं
जहाँ बसता है
एक आम इंसान।
इन्हीं करवटों में
आम जीवन को
काटती हुई ज़िंदगी
अधूरी करवटों के साथ
न जाने कब
अंतिम करवट
ले लिया करती है।

9 जनवरी 2007

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