सिमटते जज़्बात
ज़िंदगी रूठी-सी है या मैं ही ख़फ़ा हो गया,
छुप गई है ये ज़मीं या मैं यहाँ पे खो गया।
दिन रात धुआँ बन सदा पंछी के संग उड़ता गया,
उसके परों को तौलकर उसकी जुबाँ लिखता गया।
जादूगरी कुदरत की थी जहाँ पेड़ बन खुशी हो गया,
जब कभी टूटा जो पत्ता साथ उसके रो गया।
बूँद आँसू की बही मैं साथ में बहता गया,
आया पतझड़ मेरे हिस्से मैं सदा जलता गया।
बन के दाना गेहूँ का मैं भूख से लड़ता गया,
अपने सफ़र का शून्य बन मैं बस सिमटता ही गया।
9
सितंबर 2007
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