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घटनाओं के मन ठीक नहीं हैं
खुली भुजाएँ, और नीम से छनी चाँदनी
लगता है, संकल्पों के दिन ठीक नहीं है
अनगिन दर्पण उग आए रेतीले मन में
टूट-टूट जाने की जिद करती सीमाएँ
चुप है नतमस्तक है, संयम की भाषाएँ
खुले निमन्त्रण, झाँक रहे खामोश नयन में
मदहोशी में डूबी, यह अनमनी चांदनी
लगता है, सारे आगत के क्षण ठीक नहीं हैं
रुको हुई हलचल है, और अबोलापन है
केवल बोल रहे क्षण, फिर न कभी लौटेंगे
औ, न कभी फिर सन्नाटे के स्वर फूटेंगे
प्राणों में तूफान सन्दली, सम्मोहन है
तुम जैसी चंचल, तुम सी ही गुनी चांदनी
लगता है अब और खुलापन ठीक नहीं है
नैतिक एहसासों के, मिट जाने का भय है
मौसम सांकल बजा रहा, धीरज के द्वारे
सिर्फ प्रतीक्षा है, कब, किसको कौन पुकारे
ऐसे में, कब आँचल से बँध सका समय है
यह सब कुछ, औ, पापों की संगिनी चाँदनी
लगता है, घटनाओं के मन ठीक नहीं है
खुली भुजाएँ,और नीम से छनी चाँदनी
लगता है, संकल्पों के दिन ठीक नहीं है
३० मार्च २००९ |