|
एक
और गीत का जनम हो
एक बार और
अधर तक आओ
एक और गीत का जनम हो
वृक्ष में समाएँ
अर्पिता लताएँ
घेरों में बहते क्षण भर दें
नीली पंखुरियों पर, उभरें आकृतियाँ
फूलों पर
कुनकुने हस्ताक्षर कर दें
चन्दन हों तपे प्रहर
श्वाँसें हों लहर-लहर
मन हो आकाशी, बौने सभी नियम हों
परिचित सी देह गंध
अंग अंग परसे
पीपल के टूटे पत्ते सा
काँपे तन फिर से
पोर-पोर पिघलें, सीमाएँ घुल जाएँ
एक शब्द बन जाये, बस दो अक्षर से
बाहों में पाप की
समर्पें कुछ पुण्य-क्षण
घटनाक्रम यही आजनम हो
एक और गीत का जनम हो
३० मार्च २००९ |