|
छंदों के द्वार चले
आए
वहशी आवाजों के घेरे
ध्वनियों के छोड़ कर अंधेरे
गीतों के गाँव चले आए
हम नंगे पाँव चले आए
सड़कें थीं, सड़कों में घर थे
कोलाहल से भरे सफर थे
हम थे सूखे वृक्षों जैसे
जंगल से जल रहे शहर थे
छोड़ सुलगते सवाल सारे
सारे संबंध रख किनारे
अपनी चौपाल चले आए
बेबस बेहाल चले आए
भीतर एक सूखती नदी है
बाहर यह रोगिणी सदी है
साँसों की मोम मछलियों को
यह जलती रेत ही बदी हे
अनवरत धुएँ की यात्राएँ
छोड़ सभ्यता की कक्षाएँ
छन्दों के द्वार चले आए,
हम बेघरबार चले आ
गीतों के गाँव चले आए
हम नंगे पाँव चले आए
३० मार्च २००९ |