वरना वह भी
एक क्षण के लिए
वह भी चौंक जाता है
जब कलम की नोक पर
दिखती है उसे छोटे-छोटे तारों की टिमटिमाहट
जैसे ही मिटाने लगता है उन्हें
पानी के बुलबुले की तरह
एक-एक कर फटने लगते हैं सब
फिर भी उन सम्मोहित क्षणों में
शब्दों की संभावनाओं को
सीमाओं के उस पार तक खींचता रहता है
वरन वह भी
लगा रहता है समेटने बिखरी ज़िंदगी
जहाँ बच्चों की पढ़ाई
पत्नी की चार्ज शीट
काम पर जाने की हड़बड़ी
बस की धक्का-मुक्की
फ्लैटस के लुभावने विज्ञापन
समाचार में दलों का दल-दल
आतंक-अत्याचार
कठिन गुज़रता सहस्त्राब्दी-सा दिन
पिटे प्यादे-सी घर वापसी जैसा
सभी कुछ तो है
देर रात जब
अंदर-बाहर को जमी कालिख को
वह धो चुकता है
और परिवार को रहता है इंतज़ार
कि कौन बनेगा करोड़पति
सघन अंधेरे के उस कोने में
आलोक के एक क्षण की तरह
टिमटिमाता उसका कोई शब्द
बुलाता है उसे अपने पास।
१२ जनवरी २००९ |