अकेलापन
कहीं भी जाऊँ
मेरा पीछा करता है
एक अकेलापन
दूर नहीं कर पाता इसे
जी नहीं पाता
अपनों के बीच
अपनापन
अकेलेपन की नियति से
बार-बार करता हूँ इनकार
बार-बार भीड़ में समा जाना चाहता
चाल बदल कर
भाषा बदल कर
सुख-दुःख के अतिरेक में
छाती पीट-पीट कर
पर भीड़ से छिटक जाता हूँ बार-बार
विलग अकेला
मैं हमेशा से लड़ता रहा हूँ
इस अकेलेपन से
रहा हूँ धूल में लोट-पोट
माटी की गंध
देह की गंध
में तृप्त
शुक्राणुओं की होड़ में
संततियों के मेले में
मैं भी रहा हूँ शामिल
चखा है धान के खेत में
कीचड़ का स्वाद
खुरदरे हाथों से
मैंने भी सहलाया है
पीठ की मोटी छाल को
बिवाइयों में भरा है लीसा
देह में मक्की के आटे की गंध लिए
घूमा हूँ देश-विदेश
देवताओं के आवाहन-विसर्जन में
भोज की पाँत में
उपस्थित
मेरे हस्ताक्षरों की साक्षी है
उँगली पर उभरी गाँठ
निभाया है मैंने भी
छब्बीस वर्णों का धर्म
फिर मैं ही क्यों
झुंड से अलग हुए पशु की तरह
जंगल में गुम, भटका
एकाकी, अकेला?
१२ जनवरी २००९
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