अनुभूति में
सुभाष नीरव की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
ठोकरें
नदी
पढ़ना चाहता हूँ
परिंदे
माँ बेटी
हाइकु में-
राह न सूझे (दस हाइकु) |
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परिंदे
परिंदे मनुष्य नहीं होते।
धरती और आकाश
दोनों से रिश्ता रखते हैं परिंदे।
उनकी उड़ान में है अनंत व्योम
धरती का कोई भी टुकड़ा वर्जित नहीं होता
परिंदों के लिए।
घर-आँगन, गाँव, बस्ती, शहर
किसी में भेद नहीं करते परिंदे।
जाति, धर्म, नस्ल, संप्रदाय से ऊपर होते हैं वे।
मंदिर में, मस्जिद में, चर्च और गुरुद्वारे में
कोई फ़र्क नहीं करते
जब चाहें बैठ जाते हैं उड़कर
उनकी ऊँची बुर्जिय़ों पर बेखौफ़।
कर्फ्यूग्रस्त शहर की
खौफ़जदा वीरान-सुनसान सड़कों, गलियों में
विचरने से भी नहीं घबराते परिंदे।
प्रांत, देश की हदों, सरहदों से भी परे होते हैं
आकाश में उड़ते परिंदे।
इन्हें पार करते हुए
नहीं चाहिए होती इन्हें कोई अनुमति
नहीं चाहिए होता कोई पासपोर्ट-वीज़ा।
शुक्र है, परिंदों ने
नहीं सीखा रहना मनुष्य की तरह
धरती पर।
१ मई २००६
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