अनुभूति में
सावित्री तिवारी 'आज़मी' की रचनाएँ-
नई रचना—
अपने तो आख़िर अपने हैं
कविताओं में—
आओ दीप जलाएँ
कर्म-
दो मुझको वरदान प्रभू
पर्यावरण की चिंता
फिर से जवां होंगे हम
वेदना
शिक्षक
सच्चा सुख
संकलन में—
जग का मेला–
मिक्की माउस की शादी
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अपने तो आख़िर
अपने हैं इस बार हमें,
अपने वतन की याद फिर आई है।
चलो साई फिर
चले वहीं
जहाँ विलगनों के पार बसती हैं अबलाएँ।
आँवलों में खेलते हैं
नौनिहाल बेसटके से।
झुर्रियों के बीच
जहाँ बसती हैं परंपराएँ।
खेतों में फूलती हैं सरसों
चटख रंगों में निडर हो कर।
वहीं चले
जहाँ नदियाँ कल-कल सुनाती हैं गीठे गीत।
झाड़ियों के झुरमुट में
महकती है मिठास बेरों की।
बगीचों में जहाँ
टिकोरों के बीच कूकती है कोयल।
पपीहा पुकारता है तुम्हें बेचैनी से।
खलिहानों की सुगंध खींचती है मुझे अपनी ओर।
देती है उलाहने हज़ारों।
कहती हैं मैंने छीना है
तुम्हें उनसे अपने बंद सुखों की ख़ातिर।
मुझे सपनों में झकझोरती हैं गन्नों की मेड़ें।
कहती हैं
रस टपक जाता है खेतों में तुम्हारे अभाव में।
मधुमख्खियाँ भी उदास हैं लिखती हैं खत।
कर देंगी हड़ताल इस बार शहद बनाने की।
गायों ने भी किया है टेलीफोन एस.टी.डी.से।
वे भी खा लेंगी किसी दिन गोलियाँ सल्फास की
तुम्हारी ख़ातिर।
सब कुछ सुन कर
छलनी हुआ जाता है सीना 'आज़मी' का।
अब और सहा नहीं जाता।
चलो सलाह मान लो मेरी।
मत भागीदार बनाओ मुझे
इन बेगुनाहों की बद्दुआओं का।
चलो चलकर आँसूँ पोंछ दें इनके
आख़िर यही तो हमारे अपने हैं।
आख़िर कब तक रहेंगे ज़िंदा पराई उम्मीद पर।
आख़िरी वक़्त आने वाला है
परख लेना अपनों और परायों को।
अपने तो आख़िर अपने हैं।
16 जुलाई 2007 |