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वैराग्य के दोहे
डाल-डाल पर नव सुमन, खिले और मुरझाय,
आते जाते जीव की, कौन गाँठ सुरझाय ।
टूटी तन कै बाँसुरी, बिखरा मन का गीत,
पंछी उड़ा अनन्त में, ये ही जग की रीत।
लाख बेसुरा हो गया, ये जीवन का राग,
फिर भी इससे मोह है, पूरा नही विराग।
सब साधन, सुविधा सुलभ, फिर भी कैसा रोग,
धन की अंधी दौड़ में, शामिल हैं सब लोग।
गीत काकली मौन हो, इतना चीखे काग,
अपनी-अपनी ढ़ोलकी, अपना-अपना राग ।
१ जून २००५
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