ग़ज़ल का शौक
पाला है
दर्द की अँगड़ाइयों की पाठशाला है
ज़िंदगी अपनी अभावों का रिसाला है
मंदिरो के द्वार पर सर टेकने वालो!
आदमी खुद ही धरा पर इक शिवाला है
बर्फ जब से जम गई संवेदनाओं पर
हर कोई संदेह का ओढे दुशाला है
एक बच्चा पूछता था कल मदरसे में
आदमीयत की कहाँ पर पाठशाला है ?
कठघरे से कल जुड़ी पहचान थी जिनकी
आज उनका सब शहर में बोलबाला है
वक्ष पर कुछ नागिनें हमने बिठाली हैं
लोग कहते हैं ग़ज़ल का शौक पाला है
२१ अप्रैल २०१४
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