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तुम्हें कब्र में उतार कर
पीपल के पेड़ पर
ठहरा हुआ कुहासा
चिलम पी रहा है
सफेद प्रेत की तरह
और धुआँ इतना उठ रहा है
कि, कुछ दिखाई ही नहीं देता
तुम्हें कब्र में उतार देने के बाद
बहुत खाली-खाली सा लग रहा है
शाम की मुरझाई हुई धूप
मुटि्ठयों में कसकर पकड़े हुए है
पीपल की पत्तियों को
जिजीविषा अनंत जिजीविषा!
कहाँ होगा इसका वह छोर
जहाँ ठहर कर कोई कहे
कि नहीं अब और नहीं
और नहीं।
तुम्हें कब्र में उतार कर
हम अब धीरे-धीरे
लौट चलेंगे बुझे-बुझे से
अपने-अपने घर
और याद करेंगे
अवकाश के क्षणों में
कुछ दिनों तक
बातें तुम्हारी
लौट कर आती रहेंगी
यादें तुम्हारी कुछ दिनों तक।
दिसम्बर का कुहासा
तुम्हारे और हमारे बीच
फैलता जा रहा है
कालखण्ड की तरह
और होते जा रहे है हम
दूर दूर।
अकस्मात् कैसे यूँ
हो गए तुम निराकार?
बंधु ! तुम्हें कब्र में उतार कर
हम भी अब
अपनी-अपनी नियति से
करने लगे हैं
अनचाहा सा, अनिवार्य सा
साक्षात्कार। |