अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में राजेन्द्र नागदेव की रचनाएँ-

कविताओं में-
आषाढ़ में बारिश, एक लँगड़ा और मेघदूत
यह समय
तुम्हें कब्र में
समय झरता रहा
बस यूँ ही
डायनासॉर
रिमोट कंट्रोल

संकलन में-
गाँव में अलाव - एक ठंडी रात

 

आषाढ़ में बारिश, एक लंगड़ा और मेघदूत

अंधेरी रात में
भयानक बारिश !
कीचड़ से सराबोर गली में
चिकनी मिट्टी पर
फिसल गया है एक लंगड़ा
कुत्तों का भोंकना बदस्तूर ज़ारी है
कुत्तों का भोंकना
उतर रहा है शरीर में उसके
लपलपाते चाकुओं की तरह
वे धीरे-धीरे आ सकते हैं पास।

मकान की खिड़की
परदों से छनकर आता हुआ
मद्धम सा पीला प्रकाश
गली के गीलेपन में हिलता हुआ
पसर जाता है
खिड़की एक निमिष खुलकर
बंद होती है झप्प से
अंधेरे में रातभर धरती पर आकाश
धुँआधार झरता रहता है
कीचड़ से लथपथ वह आदमी
दस हाथ दूर दर्द से कराहता
सारी रात टुकड़ा-टुकड़ा मरता रहता है
एक हड्डी कहीं टूट गई
और आसमान से कड़कड़ाहट के साथ
अभी-अभी बिजली गिरी है।

यह ऐसी विकट स्थिति है
जब संज्ञाएँ खोने लगती हैं अर्थ
जब शब्द हो जाते हैं गूँगे
जब गतियाँ पंगु हो जातीं हैं
जब स्वरों के गर्भ में होता है
मात्र्र सन्नाटा।

मैं निकालता हूँ
किताबों के बीच से `मेघदूत'
मैं ढूँढता हूँ `मेघदूत' में
बारिश में फिसला हुआ लंगड़ा आदमी
वह कहीं पर नहीं है
किसी पंक्ति में नहीं है
आदमी कीचड़ में शायद फिसलते नहीं थे तब
न ही भोंेंका करते थे श्वान अंधेरी रातों में
उस काल में निकलती थीं
केवल कोमलांगी अभिसारिकाएँ
रात के अंधकार में बाहर
अभिसार के लिए।

कालिदास!
अलकापुरी से विदिशा
विदिशा से उज्जयिनी
उज्जयिनी से रामगिरि के
सैंकड़ों मील लंबे उड़ान-पथ पर
यक्ष को तुम्हारे
कीचड़ में पड़ा
कोई अपंग नहीं दिखा?
नहीं दिखे उस पर भोंकते
उसे नोचते हुए कुत्ते?
तुम्हारे कवि की संवेदना में
कहीं किसी पीड़ित किसी अपंग
किसी विपन्न के लिये
क्यों नहीं थी पंक्तिभर जगह़ भी?
तुम्हारा कवि इतना अभिजात निकला
कि अटारी में बैठा
निहारता रहा
आषाढ़ के पहले दिन मेघों की उमड़-घुमड़
पीता रहा निसर्ग के सौन्दर्य का सोमरस
उसकी भयावहता को
तुम्हारा कुशल कवि कुशलता से छिपा गया।

बाढ़ तो आती होगी उन दिनों भी
उन दिनों भी
डूबते तो होंगे ही ग्राम और नगर
उन दिनों भी
डूबते ही होंगे

सामान्य जनों के घर
मरते ही होंगे मवेशी
मरते ही होंगे मनुष्य भी
त्राहि-त्राहि मचती ही होगी
तुम्हारे कवि को वह सब दिखा क्यों नहीं?
सच है कि विरहाकुल था यक्ष
पर और भी तो बहुत कुछ था
जो याद रह गया था उसे।

तुम्हारे यक्ष ने केवल अधूरी वर्षा देखी
कालिदास! तुम्हारा कवि अधूरा था
तुमने अपने आभिजात्य में
देखी थीं केवल कलियाँ छुए थे केवल फूल
तुमने काँटे नहीं देखे
तुमने नहीं देखे बबूल
कविता तुम्हारी अधूरी थी।
उस अधूरेपन को
क्या कभी भर सकोगे तुम?
तुम्हें इसके लिये
इस युग में एक बार
लेना होगा अवतार
वर्षाऋतु में घूमना होगा नंगे पाँव
देखने होंगे
बाढ़ में डूबे
असम बिहार उड़ीसा के गाँव
खेत खलिहान पगडंडियाँ रास्ते
पूरे पूरे नगर और कस्बे
देखने होंगे अपनी आँखों से
पानी के बीच
घरों की छतों पर और पेड़ों पर फँसे हुए
भय से थरथराते भूखे निस्सहाय लोग
आकाश की ओर हाथ उठाए
करते हुए करूणा की निरर्थक याचना
देखनी होंगी
बहती हुइंर् लाशें आदमियों की
और पशुओं की
उतारने होंगे अंतस् के फ़लक पर
जल-प्लावन के भयानक दृष्य
संगमरमरी महल से अपने
उतरकर भूमि पर
करनी होगी नई कविता प्रसूत
लिखना होगा दूसरा `मेघदूत'।

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter