बसंत के इंतज़ार
में धरती के किसी भी छोर
तक
पहुँच जाए तू
फिर भी
नहीं है इतनी ज़मीन
टिक सकें जिस पर तेरे
थके हुए पैर
नहीं है इतनी ठंडक
ठंडी हो सके छाती तेरी
न ही कोई नदी इतनी भरी
बुझा सके प्यास
घूमती रह तू
अपनी धुरी पर
कुम्हार के चाक सी
खड़ी रहना है तुझे ही
पतझड़ का पेड़ बनकर
बसंत के इंतज़ार में |