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वे हमारे हक
में हैं
उसी शहर में जहाँ
फर्लांग-दो-फर्लांग से आसरा लेकर
चमकते हैं सुनहरी कंगूरे
भुरभुराती इंर्टों में बचे खड़े हैं जहाँ भूरे-भूरे
किले, रनिवास, स्मारक कुछेक खास
वही शहर
जो पलता-पसरता चला गया है
जैकारा-दर-जैकारा
वहीं है वे
वे हैं और मिंची आँखों से बूढ़ी कहानियाँ सुनाते हैं
वे ठीक वैसे हैं कि जैसे दूसरे शहरों के अधेड़
जो ज़मीन के तेजी से गायब होते चले जाने को लेकर
बेहद त्रस्त हैं
जो खुले में सोना और बेहतर समझते हैं आज
कि उदाहरण हौसले संग
जिनके सपने में आज भी उतरता है पूरा चाँद
सुकून की हद तक जिन्हें अच्छा लगता है बहता जल
और जो घर की चिकचिक के बावजूद, अकसर
मछलियों को आटे की सेवइयाँ डालते मिल जाते हैं
वे, जो किसी भव्य भवन को देख
ठिठक कर खड़े हो जाते हैं
और साधिकार कहते हुए मिल सकते हैं
कि इससे पूर्व तथा उससे भी पहले
यहाँ क्या था -
काफी बच-बचाकर सड़क पार करते हैं वे
और पार पहुँच, कुछ देर तक
कमर पर हाथ रखे खड़े
खाँसते-हाँफते रहते हैं
इसके बावजूद
वे ही हैं कुशल पैदल चलने वाले
कुछ ऐसे ही जैसे
उन्होंने ही ईजाद की हों पगडंडियाँ
शायद इसीलिए उन्हें ही
वृक्षों की छाया में खड़े होना/सुस्ताना आता है
चमकते कंगूरों वाले इस कमॉडिटी शहर में वे
तमाम उठक-बैठक, नोकझोंक, भागदौड़, छीना-झपटी,
मारकाट वगैरह के चलते
पक्के घराने के किसी राग की तरह
बेहिचक बने हुए हैं
वे हैं- इसीलिए शहर में बचा हुआ है एक शहर और
वे हैं- इसीलिए शहर को किसी दूसरे कोण से भी देखा जा सकता है।
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