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अनुभूति में मनोज शर्मा की
रचनाएँ -

छंदमुक्त में-
एक आस्था और
गुफ्तगू
पतंग
वे हमारे हक़ में हैं
समुद्र (६ कविताएँ)
 

 

समुद्र (छे कविताएँ)

१.

तुम्हारे
बेहद करीब आकर
मैंने बाल बनाए, फिर
पैंट की क्रीज सीधी की
और तमाम चुगलियों की ओर करते हुए पीठ
अपने दोनों ईमानदार हाथ
तुम्हारी उफनती हसीन इच्छाओं की ओर फैला दिए
इतनी दूर से तुम्हें
सिर्फ देखने न आया हूँ
मैं !

२.

तुम्हारे भीतर
जो गूँजती है आवाज़
जिसके हर्फ-हिज्जे सुधारने को
उतरता है चाँद
वैसी ही आवाज़ मेरे लहू में बल खाती है
अजीब बात है
कि मसें भीगने से लेकर आज दोपहर तक
जिसे समझ न सका
वही रहस्य
ठीक अभी खुला है।

३.

तुम्हारा नमक
पहाड़ियाँ, शहर, खेत, नदियाँ, कस्बे, मोहल्ले,
मकान, गलियाँ, छत्तें पार करवाता जाता है --
वह पंजफूल रानी
जिस पे टूट-टूटकर आया था मौसम
जो कच्ची उम्र के पहले इश्क का पहला तराना बनी
हाँ-हाँ!
तुम्हारा नमक
ठीक वहीं ले जाता है

तुम्हारा नमक
मुझे मेरी ज़मीन की याद दिलाता है
तुम्हारा नमक
दुनिया के तमाम भले आदमियों की तमीज बताता है
तुम्हारा नमक
उन कहवाघरों तक पहुँचाता है
जहाँ हमने मनसूबे गढ़ने सीखे
तुम्हारा नमक ही तो है
जो कबीर से केदारनाथ सिंह तक
कविता के धुर अंदर तक ले जाता है

यह नमक ही था
जिसने मुझे कभी अकेला नहीं पड़ने दिया
छोटी जगहों पर रहने वाले
हम बच्चों ने वैसे
अपनी शुरुआती शरारतों में ही जान लिया था
कि खूब मुटियायी जोंक पर
जो डाल दें चुटकी भर नमक
तो चूसा रक्त
बिलबिलाकर बाहर निकल आता है

उन दिनों
नमक की एक डली
हमारी जेबों में रहा करती थी
जिसे जवानी के
बेकारी भरे दिनों में हम
बेहद लाज़िमी समझने लगे

आज जब
बीते सालों संग उपस्थित हूँ तुम्हारे सामने
इतनी खर्च डाली उम्र
और तुम्हारे सामने आकर
लगे है बार-बार

कि वह तुम्हारा ही नमक रहा
जिसकी तासीर बसी है जिह्वा की नोक पर
कि झाँक सकता हूँ
जीवन की तपी दुपहरी में
हर बार
साधिकार।


४.

वहाँ डूब जाएगा सूरज
लगभग ऐसा लग रहा है
और एक कश्ती नजर आ रही है
संभवत: कुछ मानुष-जात लौट रहे हों
वहाँ जितनी भी हलचल है
उसका यहाँ कोई असर नहीं
गोया कि जो दिख रहा है
महज़ दिख जाने के लिए उपस्थित है
छलकता नहीं है दृश्य
हालाँकि इतना है जल
कि किनारे छलक-छलक जा रहे हैं।


५.

कैसी हसरत रही
तुम्हें देखने की
सोचता हूं तो गुदगुदी होती है
एक परिचित ने बताया
पहली बार जो देखा समुद्र
तो ख़ुदा याद आया

मेरा तो और कमाल रहा
जैसे अचानक चला आया मुंबई
खुद को अचानक एक दिन
तुम्हारे किनारे खड़ा पाया
बताऊं
इससे कहीं पहले
इस शहर को ही देखते-समझते
मैंने भी खुदा के कई हिस्से टटोले थे
तुम तक आकर फिर
धुलती चली गई गंदगी तमाम
और श्रम याद आने लगा
जत्थे मछेरों के
वक्त ने जिन्हें धागे की पैदाइश के साथ ही बुना था
वे जाल याद आने लगे
याद आए व्यापारी, तिजारती कंपनियाँ और समुद्री डाकू
जिनकी एक आंख पर कहते हैं
काली पट्टी बँधी होती थी --
कई लापता हो गए जहाज याद आए
फिर कहानियों वाली
वह जलपरी भी आई याद
जिसका रंग सुनहरा था
और जिसके केशों से झड़ते थे मोती
झक्क सफेद !

समुद्र
तुमसे प्राचीन कुछ नहीं है यहाँ
कई-कई गवाहियाँ हैं तुम्हारे पास
लोग कहते हैं
बहुत तेज़ रफ्तार हवाएं चलती हैं तुम्हारे भीतर
तुम्हारे भीतर आग है
ऐसा भी कहते हैं लोग
कई-कई रंग दिखा सकते हो/दिखाते हो
परे हो, सभ्यताओं से/संस्कृतियों से
एकदम निर्लिप्त हो-होगे
मुझे लेकर भी न जाने
क्या-क्या कहते हैं लोग -

प्यारे !
मुझे तो इतना यकीन है
मुझसे मिल
मुस्कराए हो जरूर, तुम
अपने दूसरे किनारे तक
मेरे आने की ख़बर भी जरूर भेजी है

मानो या न मानो
इतना-इतना गुज़र गया समय
तुम्हें रहा है इंतज़ार
तो-लो
मैं आ गया !

६.

समुद्र
वह कौन सी लहर रही फेनिल
जिसके सीने पर सवार
गाता ज़िंदगी के टप्पे
बढ़ता गया 'तवी' के जल तक
और अंतर्घट के जल से हुआ साक्षात्कार
अद्भुत रहा
कि अंदर से जितना गीला होता गया
उससे और अधिक की उम्मीद करने लगा
अभी कहीं पास
यह जो बजने लगी है सीटी सी
लौटने लगे हैं
बीते कई आसमान, आहटें कई, कई रास्ते
कैसे तो गिराते जा रहे हैं क़तरे -

समुद्र
उस मटियाली सी, टेढ़ी, संकरी तवी में
खूब तैरा, मस्ती की है खूब
कई अपनों के जलाए हैं शव, उसी के किनारे
किया है प्यार, बार-बार
ताकते गरूड़, मांगी हैं मनौतियाँ
लगाया है जैकारा, साथ-साथ
नुक्कड़ का डमरू पकड़े
दिलकश जुबान में गाया है विचार भी
फिर यारों संग
रात की गहराई इस कदर नापी है
कि गुजर जाएं शताब्दियाँ, तो भी
दूजा कोई वहाँ पहुँचने की जुर्रत नहीं कर सकता

देखा जाए तो
जिसे हम याद करते हैं मुंह-अंधेरे
ठाठें मारता
समुद्र ही तो होता है
किंतु वह कौन सी होती है फेनिल लहर
जिसके सीने पे सवार
हम कभी नहीं भटकते
कि, लौट-लौट जाते हैं
वहीं फिर वहीं -।

 

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