अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में मनोज शर्मा की
रचनाएँ -

छंदमुक्त में-
एक आस्था और
गुफ्तगू
पतंग
वे हमारे हक़ में हैं
समुद्र (६ कविताएँ)
 

 

गुफ्तगू

दोस्त
अक्सर मेरे दरवाजे आते हैं
कई छुए-अनछुए पल
और मैं
तेल टपका
बांध बंदनवार
बिटर-बिटर झांकते कोलॉज बनाता हंू
कई बातें चलाता हूँ

कि, काश
मेरे पास हों किसी कहानी के बीज
जिसे किसी कुंआरी में रोप
अंकुर फूटने की लालसा में खीझता
हलकी सी चटख पे
दुनिया के कामयाब मर्द की सिसकारी भरूं

काश
मेरे पास हो तीसरी आंख
जिससे बच सकूं
किसी की खुरली में
नमक को ढेला बनने से

काश
मेरे हाथ में हो प्रेत
जिसे अदीबों की गुफ्तार में
भेज सकूं

काश
मैं कविता के मोरपंख से
एस हरेक का पसीना पोछूं
जो जीवन के तसले में
सीमेंट और रेत का चारा रह जाता है

काश
मैं समय की शिला पर
छुट्टी के राजमांह धरूं
औ' आलस के चावलों संग चटखारे लूं
काश
मैं अचानक कुछ भी घट जाने के डर को
जांघ में दबा
उसकी औकात पूछूं

बेशक दोस्त
हमारे पास है बातों का लंबा सिलसिला
और शब्दों का खट्टा-मीठा भंडार
बेशक
हम इतने आसान नहीं
जैसे किसी ग्रंथी ने शंख फूंका हो
फिर भी
चल यार 'रंजूर'
आज की रात
ऐसी कही-अनकही ही सही
आज
चूल्हे का गंधाता धुंआ ही सही
पर हमारे घरों में
आग बुझाई नहीं
दबाई जाती है
पता नहीं कब
कोई पड़ोसी
आग मांगने आ जाए।


पतंग

म्यूजियम में एक पतंग थी
टंगी पतंग के ठीक नीचे
उड़ाने वाले राजा का सिंह जैसा नाम
इतनी खूबसूरती से लिखा था
कि मुलायम और रेशमी नज़र आता था
पतंग बनाने वाले के खानदान तक का ब्यौरा था वहाँ
जैसे कि
वह इलाके का एक ही मुसलमान परिवार था, जो
दशहरे पर रावण बनाता और दूरदराज तक अपनी रची पतंगे पहूँचाता

मैंने तथा मेरे बेटे ने
एक साथ देखी पतंग
फिर हम उसी पहाड़ी के ऊपरी सिरे तक चले गए
वहाँ-जहाँ सर्रसर्र हवा थी, बहती - छूती हुई

पापा !
यहीं खड़े होकर ही तो उड़ाते रहे होंगे राजा पतंग
हो सकता है - कहा मैंने
तभी, तभी तो --
बोला बेटा
पतंग लूटने वालों का नाम नहीं है लिखा वहाँ
क्या उतरते रहे होंगे इसी खाई में
अपने बांस, झाड़, धागों के सिरों पर लटकते पत्थर लेकर
और राजा तो
कट जाने पर एकदम बनवा लेते होंगे
नयी पतंग
पर, उनसे पेंच कौन लड़ाता होगा पापा?

(जम्मू के लोकनायक मियां डिडो को समर्पित)

समुद्र (छे कविताएँ)

१.

तुम्हारे
बेहद करीब आकर
मैंने बाल बनाए, फिर
पैंट की क्रीज सीधी की
और तमाम चुगलियों की ओर करते हुए पीठ
अपने दोनों ईमानदार हाथ
तुम्हारी उफनती हसीन इच्छाओं की ओर फैला दिए
इतनी दूर से तुम्हें
सिर्फ देखने न आया हंू
मैं !

२.

तुम्हारे भीतर
जो गूंजती है आवाज़
जिसके हर्फ-हिज्जे सुधारने को
उतरता है चांद
वैसी ही आवाज़ मेरे लहू में बल खाती है
अजीब बात है
कि मसें भीगने से लेकर आज दोपहर तक
जिसे समझ न सका
वही रहस्य
ठीक अभी खुला है।

३.

तुम्हारा नमक
पहाड़ियां, शहर, खेत, नदियां, कस्बे, मोहल्ले,
मकान, गलियां, छत्तें पार करवाता जाता है --
वह पंजफूल रानी
जिस पे टूट-टूटकर आया था मौसम
जो कच्ची उम्र के पहले इश्क का पहला तराना बनी
हाँ-हाँ!
तुम्हारा नमक
ठीक वहीं ले जाता है

तुम्हारा नमक
मुझे मेरी ज़मीन की याद दिलाता है
तुम्हारा नमक
दुनिया के तमाम भले आदमियों की तमीज बताता है
तुम्हारा नमक
उन कहवाघरों तक पहूँचाता है
जहाँ हमने मनसूबे गढ़ने सीखे
तुम्हारा नमक ही तो है
जो कबीर से केदारनाथ सिंह तक
कविता के धुर अंदर तक ले जाता है

यह नमक ही था
जिसने मुझे कभी अकेला नहीं पड़ने दिया
छोटी जगहों पर रहने वाले
हम बच्चों ने वैसे
अपनी शुरूआती शरारतों में ही जान लिया था
कि खूब मुटियायी जोंक पर
जो डाल दें चुटकी भर नमक
तो चूसा रक्त
बिलबिलाकर बाहर निकल आता है

उन दिनों
नमक की एक डली
हमारी जेबों में रहा करती थी
जिसे जवानी के
बेकारी भरे दिनों में हम
बेहद लाज़िमी समझने लगे

आज जब
बीते सालों संग उपस्थित हूँ तुम्हारे सामने
इतनी खर्च डाली उम्र
और तुम्हारे सामने आकर
लगे है बार-बार

कि वह तुम्हारा ही नमक रहा
जिसकी तासीर बसी है जिह्वा की नोक पर
कि झांक सकता हूँ
जीवन की तपी दुपहरी में
हर बार
साधिकार।


४.

वहाँ डूब जाएगा सूरज
लगभग ऐसा लग रहा है
और एक कश्ती नजर आ रही है
संभवत: कुछ मानुष-जात लौट रहे हों
वहाँ जितनी भी हलचल है
उसका यहाँ कोई असर नहीं
गोया कि जो दिख रहा है
महज़ दिख जाने के लिए उपस्थित है
छलकता नहीं है दृश्य
हालांकि इतना है जल
कि किनारे छलक-छलक जा रहे हैं।


५.

कैसी हसरत रही
तुम्हें देखने की
सोचता हूँ तो गुदगुदी होती है
एक परिचित ने बताया
पहली बार जो देखा समुद्र
तो ख़ुदा याद आया

मेरा तो और कमाल रहा
जैसे अचानक चला आया मुंबई
खुद को अचानक एक दिन
तुम्हारे किनारे खड़ा पाया
बताऊँ
इससे कहीं पहले
इस शहर को ही देखते-समझते
मैंने भी खुदा के कई हिस्से टटोले थे
तुम तक आकर फिर
धुलती चली गई गंदगी तमाम
और श्रम याद आने लगा
जत्थे मछेरों के
वक्त ने जिन्हें धागे की पैदाइश के साथ ही बुना था
वे जाल याद आने लगे
याद आए व्यापारी, तिजारती कंपनियां और समुद्री डाकू
जिनकी एक आंख पर कहते हैं
काली पट्टी बंधी होती थी --
कई लापता हो गए जहाज याद आए
फिर कहानियों वाली
वह जलपरी भी आई याद
जिसका रंग सुनहरा था
और जिसके केशों से झड़ते थे मोती
झक्क सफेद !

समुद्र
तुमसे प्राचीन कुछ नहीं है यहाँ
कई-कई गवाहियां हैं तुम्हारे पास
लोग कहते हैं
बहुत तेज़ रफ्तार हवाएं चलती हैं तुम्हारे भीतर
तुम्हारे भीतर आग है
ऐसा भी कहते हैं लोग
कई-कई रंग दिखा सकते हो/दिखाते हो
परे हो, सभ्यताओं से/संस्कृतियों से
एकदम निर्लिप्त हो-होगे
मुझे लेकर भी न जाने
क्या-क्या कहते हैं लोग -

प्यारे !
मुझे तो इतना यकीन है
मुझसे मिल
मुस्कराए हो जरूर, तुम
अपने दूसरे किनारे तक
मेरे आने की ख़बर भी जरूर भेजी है

मानो या न मानो
इतना-इतना गुज़र गया समय
तुम्हें रहा है इंतज़ार
तो-लो
मैं आ गया !

६.

समुद्र
वह कौन सी लहर रही फेनिल
जिसके सीने पर सवार
गाता ज़िंदगी के टप्पे
बढ़ता गया 'तवी' के जल तक
और अंतर्घट के जल से हुआ साक्षात्कार
अद्भुत रहा
कि अंदर से जितना गीला होता गया
उससे और अधिक की उम्मीद करने लगा
अभी कहीं पास
यह जो बजने लगी है सीटी सी
लौटने लगे हैं
बीते कई आसमान, आहटें कई, कई रास्ते
कैसे तो गिराते जा रहे हैं क़तरे -

समुद्र
उस मटियाली सी, टेढ़ी, संकरी तवी में
खूब तैरा, मस्ती की है खूब
कई अपनों के जलाए हैं शव, उसी के किनारे
किया है प्यार, बार-बार
ताकते गरूड़, मांगी हैं मनौतियां
लगाया है जैकारा, साथ-साथ
नुक्कड़ का डमरू पकड़े
दिलकश जुबान में गाया है विचार भी
फिर यारों संग
रात की गहराई इस कदर नापी है
कि गुजर जाएं शताब्दियां, तो भी
दूजा कोई वहाँ पहूँचने की जुर्रत नहीं कर सकता

देखा जाए तो
जिसे हम याद करते हैं मुंह-अंधेरे
ठाठें मारता
समुद्र ही तो होता है
किंतु वह कौन सी होती है फेनिल लहर
जिसके सीने पे सवार
हम कभी नहीं भटकते
कि, लौट-लौट जाते हैं
वहीं फिर वहीं -।

(तवी : जम्मू की नदी)
र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्
वे हमारे हक में हैं

उसी शहर में जहाँ
फर्लांग-दो-फर्लांग से आसरा लेकर
चमकते हैं सुनहरी कंगूरे
भुरभुराती इंर्टों में बचे खड़े हैं जहाँ भूरे-भूरे
किले, रनिवास, स्मारक कुछेक खास
वही शहर
जो पलता-पसरता चला गया है
जैकारा-दर-जैकारा
वहीं है वे

वे हैं और मिंची आंखों से बूढ़ी कहानियां सुनाते हैं
वे ठीक वैसे हैं कि जैसे दूसरे शहरों के अधेड़
जो ज़मीन के तेजी से गायब होते चले जाने को लेकर
बेहद त्रस्त हैं
जो खुले में सोना और बेहतर समझते हैं आज
कि उदाहरण हौसले संग
जिनके सपने में आज भी उतरता है पूरा चांद
सुकून की हद तक जिन्हें अच्छा लगता है बहता जल
और जो घर की चिकचिक के बावजूद, अकसर
मछलियों को आटे की सेवइयां डालते मिल जाते हैं

वे, जो किसी भव्य भवन को देख
ठिठक कर खड़े हो जाते हैं
और साधिकार कहते हुए मिल सकते हैं
कि इससे पूर्व तथा उससे भी पहले
यहाँ क्या था -
काफी बच-बचाकर सड़क पार करते हैं वे
और पार पहूँच, कुछ देर तक
कमर पर हाथ रखे खड़े
खांसते-हाँफते रहते हैं

इसके बावजूद
वे ही हैं कुशल पैदल चलने वाले
कुछ ऐसे ही जैसे
उन्होंने ही ईजाद की हों पगडंडियां
शायद इसीलिए उन्हें ही
वृक्षों की छाया में खड़े होना/सुस्ताना आता है

चमकते कंगूरों वाले इस कमॉडिटी शहर में वे
तमाम उठक-बैठक, नोकझोंक, भागदौड़, छीना-झपटी,
मारकाट वगैरह के चलते
पक्के घराने के किसी राग की तरह
बेहिचक बने हुए हैं

वे हैं
इसीलिए शहर में बचा हुआ है एक शहर और
वे हैं
इसीलिए शहर को किसी दूसरे कोण से भी देखा जा सकता है।

 

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter