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अनुभूति में मनोज शर्मा की
रचनाएँ -

छंदमुक्त में-
एक आस्था और
गुफ्तगू
पतंग
वे हमारे हक़ में हैं
समुद्र (६ कविताएँ)
 

 

पतंग

म्यूजियम में एक पतंग थी
टंगी पतंग के ठीक नीचे
उड़ाने वाले राजा का सिंह जैसा नाम
इतनी खूबसूरती से लिखा था
कि मुलायम और रेशमी नज़र आता था
पतंग बनाने वाले के खानदान तक का ब्यौरा था वहां
जैसे कि
वह इलाके का एक ही मुसलमान परिवार था, जो
दशहरे पर रावण बनाता और दूरदराज तक अपनी रची पतंगे पहुंचाता

मैंने तथा मेरे बेटे ने
एक साथ देखी पतंग
फिर हम उसी पहाड़ी के ऊपरी सिरे तक चले गए
वहां-जहां सर्रसर्र हवा थी, बहती - छूती हुई

पापा !
यहीं खड़े होकर ही तो उड़ाते रहे होंगे राजा पतंग
हो सकता है - कहा मैंने
तभी, तभी तो --
बोला बेटा
पतंग लूटने वालों का नाम नहीं है लिखा वहां
क्या उतरते रहे होंगे इसी खाई में
अपने बांस, झाड़, धागों के सिरों पर लटकते पत्थर लेकर
और राजा तो
कट जाने पर एकदम बनवा लेते होंगे
नयी पतंग
पर, उनसे पेंच कौन लड़ाता होगा पापा?

(जम्मू के लोकनायक मियां डिडो को समर्पित)

 

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