सपने में रंग गई कान्हा के रंग
तन में तरंग उठें, उर में उमंग सखि
सपने में रंग गई कान्हा के रंग सखी
नयनों की वर्षा से भीगी मैं सारी
नेह पिचकारी कान्हा बार-बार मारी
तन के तार झनझनाएँ, नाचे अंग-अंग सखि
सपने में रंग गई कान्हा के रंग सखी
फागुन के गुन बतलाऊँ कैसे मैं आली
अँखियों मे रंग नया, अधरों पे लाली
बिन छुए गुलाल लाल, गाल गए रंग सखि
सपने में रंग गई कान्हा के रंग सखी
ऐसा है रंग सखि धोऊँ न छूटे
रातें सुहानी लगें दिन भी अनूठे
बौराए मन मोरा बिना पिए ही भंग सखि
सपने में रंग गई कान्हा के रंग सखी
1 सितंबर 2007
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