बेटियाँ
आज खिली हैं इस आँगन में, चल देंगी कल द्वार से
चहक रहीं हैं आज न जाने, उड़ जाएँ कब डार से
हाय ब्याह की रीत है ऐसी, अपना घर ही बना विदेसी
सीखी जिससे जीवन सरगम, दूर उसी झंकार से
किन-किन यत्नों से था पाला, अपना तन-मन-धन दे डाला
हाय! विदा के संग विदा ली, खुशियों ने संसार से
हाय! यही होता गठबंधन, उर में रहता मेरे क्रंदन
आर्त रुदन कितने सुनती हूँ क्रूर नियति के वार से
चहक रही थीं कल तक देखो व्याकुल हैं उस डार-पर
खिली-खिली थीं इस आँगन में मुरझाई पतझार से
जग में पूजित है जब नारी, भेदभाव फिर क्यों है
भारी
डूब रही हैं हाय बचा लो कोई इन्हें मँझधार से
1 सितंबर 2007
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