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प्रतिभा प्रवास
पिता
तुमने मुझे क्या दिया?
स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय?
कड़ी मेहनत
और बेकारी
तथा
पितृ ऋण को
न चुका पाने के उलाहने।
पिता
तुम्हारे देश में मैं
वनवासी की तरह
लम्बे चौदह वर्ष
रिक्त स्थलों के पते नोट कर
डायरियाँ भरता रहा
चप्पलें चटखारता रहा
कपूत, कपूत, कपूत
मेरा मन धिक्कारता रहा।
और आज
विदेश वास ने
सिलीकोन वैली ने
मेरे चारों ओर
स्वर्ग फैला दिए हैं।
बड़ा अच्छा लगता है
पिता
मैं तुम्हारा पितृ ऋण
चुका रहा हूँ।
तुम्हारे लिए
अर्थ भिजवा रहा हूँ।
इहलोक और परलोक के लिए
धर्म, यश, मोक्ष
जुटा लेना
दवा-दारू
स्वास्थ्य-चिकित्सा
के प्रति सचेत रहना।
कथा-कीर्तन
ध्यान-साधना
दान-पुण्य
तीर्थ यात्रा
में मन लगाना।
मैं श्रवण कुमार नहीं हूँ
पर
तुम्हारे देश के लोग कहते हैं
कि
बन गया हूँ
सपूत, सपूत, सपूत।
१९ अप्रैल २०१० |