बस्तर- दो
कब तक करवट लिए
मुँह ढाँपे पड़े रहेंगे लोग
आज रात फिर
दरवाज़े पर दस्तक हुई
आज रात फिर
कोई परिंदा चीखा
पीपल पर बसेरा किये
सारे बगुले उड़ गए
बस्ती अँधेरे में सिमट गई
टकटकी लगाये थक चुके हैं
इस बस्ती में सुबह नहीं होती
रातें होती है
दस्तक भरी
भूल कर भी
सुबह कभी आई भी
तो बस्ती में
जलती मिलीं चिताएँ
दरवाज़ों पर लटके हुए
आश्वासनों के थैले
कब तक
कबतक करवट लिए
मुँह ढाँपे पड़े रहेंगे लोग
२१ दिसंबर २००९ |