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प्रायश्चित

मन को कोना-कोना
साफ़-सुथरा दीख रहा है
जैसे लिपा-पुता घर-आँगन
हलाक हुआ उतना अधिक
भर उठा है जितना
चमक रहा है एक बूँद सूरज कपोल पर
आँखों के रास्ते अड़ते-अड़ाते
उमड़ पड़ा है अथाह विश्वास
खुद पर
पहली बार

आएगा कोई भगीरथ
आर्यावर्त में
महाकाल-सी स्तब्धता
पुत्र सभी बिखरे पडे
जैसे कंकड़ पत्थर
भस्म में तब्दील
मुनि कपिल के श्राप से
मिलेगा कब कैसे
वंशसूर्यों को पुनर्जीवन
कौन कर सकेगा अवतरण पतित-पावनी गंगा का
समय का सर्वाधिक चुनौती भरा प्रश्न

कहीं कोई हलचल नहीं
अभिमान की प्राणवायु स्थिर-सी
ऐसे ख़तरनाक क्षणों में बहरे युग के सम्मुख
उद्धारकों के आह्वान से
कहीं बेहतर है अस्मिता की रक्षा के लिए
एकाकी घोर तपस्या करना
अब जबकि मुँह लटकाए खड़े
कुछ बिलकुल अनजान
कुछ आदतन टालू और कोढ़ी

बावजूद इसके
ओ मेरे पूर्वजों!
धैर्य धरो
जाह्नवी के साथ
हममें से ही कोई
आएगा एक दिन भगीरथ

१ अप्रैल २००६

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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