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नदी

नदी
हमारे सपनों में गुनगुनाती है अंतहीन लोकगीत
गीतों में गमकते हैं
कछारी माटी वाले हमारे सपने
पहुँचाती है पुरखों तक
अंजुरी भर कुशल क्षेम
दोने भर रोशनी

हमारी बहू-बेटियों की मनौतियों की
निर्मल चिठ्ठी के लिए
जनम-जनम बनती है डाकिया
पूछती फिरती है सही-सही पता
बाधाओं के पहाड़ लाँघकर
नदी अन्न के भीतर पैठ कर पहुँचती है
हमारे जीवन में
अथाह ऊर्जा के साथ

सभी के काम पर गुम हो जाने के बाद भी
बच्चों के आसपास रहती है कोई
तो
वह नदी ही है माँ की तरह
हमारे बच्चे अनाथ हुए बिना
रचते रहेंगे दोनों तटों पर गाँव
गाँव की दुनिया में मेले
जब तक उमड़ती रहेगी नदी
उनमें सतत

१ अप्रैल २००६

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