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अनुभूति में डॉ. जगदीश व्योम की रचनाएँ—

कविताओं में—
अक्षर
छंद
रात की मुट्ठी
सो गई है मनुजता की संवेदना
हे चिर अव्यय हे चिर नूतन

गीतों में—
आहत युगबोध के
इतने आरोप न थोपो
न जाने क्या होगा
पीपल की छाँव
बाज़ीगर बन गई व्यवस्था
हाइकु नवगीत

दोहों में—
ग्यारह दोहे

हाइकु में-
सात हाइकु

संकलन में—
तुम्हें नमन- किसकी है तस्वीर
नव वर्ष अभिनंदन-– दादी कहती हैं
हिंदी के 100 सर्वश्रेष्ठ प्रेमगीत- पिउ पिउ न पपिहरा बोल

 

सो गई है मनुजता की संवेदना

सो गई है मनुजता की संवेदना
गीत के रूप में भैरवी गाइए
गा न पाओ अगर जागरण के लिए
कारवाँ छोड़कर अपने घर जाइए

झूठ की चाशनी में पगी ज़िंदगी
आजकल स्वाद में कुछ खटाने लगी
सत्य सुनने की आदी नहीं है हवा
कह दिया इसलिए लड़खड़ाने लगी
सत्य ऐसा कहो, जो न हो निर्वसन
उसको शब्दों का परिधान पहनाइए।

काव्य की कुलवधू हाशिए पर खड़ी
ओढ़कर त्रासदी का मलिन आवरण
चंद सिक्कों में बिकती रही ज़िंदगी
और नीलाम होते रहे आचरण
लेखनी छुप के आँसू बहाती रही
उनको रखने को गंगाजली चाहिए।

राजमहलों के कालीन की कोख में
कितनी रंभाओं का है कुंआरा रुदन
देह की हाट में भूख की त्रासदी
और भी कुछ है तो उम्र भर की घुटन
इस घुटन को उपेक्षा बहुत मिल चुकी
अब तो जीने का अधिकार दिलवाइए।

भूख के प्रश्न हल कर रहा जो उसे
है ज़रूरत नहीं कोई कुछ ज्ञान दे
कर्म से हो विमुख व्यक्ति गीता रटे
और चाहे कि युग उसको सम्मान दे
ऐसे भूले पथिक को पतित पंक से
खींच कर कर्म के पंथ पर लाइए।

कोई भी तो नहीं दूध का है धुला
है प्रदूषित समूचा ही पर्यावरण
कोई नंगा खड़ा वक्त की हाट में
कोई ओढ़े हुए झूठ का आवरण
सभ्यता के नगर का है दस्तूर ये-
इनमें ढल जाइए या चले आइए।

1 अप्रैल 2005   

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