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अनुभूति में डॉ. जगदीश व्योम की रचनाएँ—

कविताओं में—
अक्षर
छंद
रात की मुट्ठी
सो गई है मनुजता की संवेदना
हे चिर अव्यय हे चिर नूतन

गीतों में—
आहत युगबोध के
इतने आरोप न थोपो
न जाने क्या होगा
पीपल की छाँव
बाज़ीगर बन गई व्यवस्था
हाइकु नवगीत

दोहों में—
ग्यारह दोहे

हाइकु में-
सात हाइकु

संकलन में—
तुम्हें नमन- किसकी है तस्वीर
नव वर्ष अभिनंदन-– दादी कहती हैं
हिंदी के 100 सर्वश्रेष्ठ प्रेमगीत- पिउ पिउ न पपिहरा बोल

 

इतने आरोप न थोपो

इतने आरोप न थोपो
मन बागी हो जाए
मन बागी हो जाए, वैरागी हो जाए

यदि बाँच सको तो बाँचो मेरे अंतस की पीड़ा
जीवन हो गया तरंग रहित बस पाषाणी क्रीड़ा
मन की अनुगूँज गूँज बन-बन कर जब अकुलाती है
शब्दों की लहर लहर लहराकर तपन बुझाती है
ये चिनगारी फिर से न मचलकर आगी बन जाए
मन बागी हो जाए, वैरागी हो जाए

खुद खाते हो पर औरों पर आरोप लगाते हो
सिक्कों में तुम ईमान-धर्म के संग बिक जाते हो
आरोपों की जीवन में जब जब हद हो जाती है
परिचय की गाँठ पिघलकर आँसू बन जाती है
नीरस जीवन मुँह मोड़ न अब बैरागी हो जाए
मन बागी हो जाए, वैरागी हो जाए

आरोपों की विपरीत दिशा में चलना मुझे सुहाता
सपने में भी है बिना रीढ़ का मीत न मुझको भाता
आरोपों का विष पीकर ही तो मीरा घर से निकली
लेखनी निराला की आरोपी गरल पान कर मचली
ये दग्ध हृदय वेदनापथी का सहभागी हो जाए
मन बागी हो जाए, वैरागी हो जाए

क्यों दिए पंख जब उड़ने पर लगवानी थी पाबंदी
क्यों रूप वहाँ दे दिया जहाँ बस्ती की बस्ती अंधी
जो तर्क बुद्धि से दूर बने रह करते जीवन क्रीड़ा
वे क्या जाने सुकरातों की कैसी होती है पीड़ा
जीवंत बुद्धि वेदनापूत की अनुरागी हो जाए
मन बागी हो जाए, वैरागी हो जाए

1 अप्रैल 2005   

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