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रात की मुट्ठी
वक्त का आखेटक
घूम रहा है
शर संधान किए
लगाए है टकटकी
कि हम
करें तनिक-सा प्रमाद
और, वह-
दबोच ले हमें
तहस नहस कर दे
हमारे मिथ्याभिमान को
पर
आएगा सतत नैराश्य ही
उसके हिस्से में
क्यों कि
हमने पहचान ली है
उसकी पगध्वनि
दूर हो गया है हमसे
हमारा तंद्रिल व्यामोह
हम ने पढ़ लिए हैं
समय के पंखों पर उभरे
पुलकित अक्षर
जिसमें लिखा है कि -
आओ!
हम सब मिल कर
खोलें, रात की मुट्ठी को
जिसमें कैद है
समूचा सूरज।
1 अप्रैल 2005
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