आहत युगबोध के
आहत युगबोध के जीवंत ये नियम
यों ही बदनाम हुए हम
मन की अनुगूँज ने वैधव्य वेष
धार लिया
काँपती अँगुलियों ने स्वर का सिंगार किया
अवचेतन मन उदास
पाई है अबुझ प्यास
त्रासदी के नाम हुए हम
यों ही बदनाम हुए हम
अलासाई कामनाएँ चढ़ने लगीं
सीढ़ियाँ
टूटे अनुबंध जिन्हें ढो रही थी पीढ़ियाँ
वैभव की लालसा ने
ललचाया मन पाँखी
संज्ञा से आज सर्वनाम हुए हम
यों ही बदनाम हुए हम
दुख नहीं तो सुख कैसा सुख नहीं
तो दुख कैसा
सुख है तो दुख भी है, दुख है तो सुख भी है
दुख सुख का अजब संग
अजब रंग अजब ढंग
दुख तो है सुख की विजय का परचम
यों ही बदनाम हुए हम
कविता के अक्षरों में व्याकुल
मन की पीड़ा है
उनके लिए तो कविकर्म शब्दक्रीडा है
शोषित बन जीते हैं
नित्य गरल पीते हैं
युग की विभीषिका के नाम हुए हम
यों ही बदनाम हुए हम
युग क्या पहचाने हम कलम फकीरों
को
हम ते बदल देते युग की लकीरों को
धरती जब माँगती है विषपायी कंठ तब
कभी शिव मीरा घनश्याम हुए हम
यों ही बदनाम हुए हम
व्योम गुनगुनाया जब अंतस
अकुलाया है
खड़ा हुआ कठघरे में खुद को भी पाया है
हम भी तो शोषक हैं
युग के उदघोषक हैं
घोड़ा हैं हम ही लगाम हुए हम
यों ही बदनाम हुए हम
1 अप्रैल 2005
|