अनुभूति में
देवेन्द्र रिणवा की रचनाएँ-
कविताओं में-
और शब्द भी हैं
कुरेदा नहीं जाता जब अलाव
दुहरा हुआ जाता है पेड़
परछाँई
बीमार
यह जो तरल है
याद नहीं आता
हाँ नहीं
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यह जो तरल है
यह जो तरल है
इसमें गति भी है, शक्ति भी
बहता आया है यह सदियों से
हमारे मन, मस्तिष्क में
सींचता आया है सम्बन्धों को
जरूरत पड़ने पर तोड़ा है इसने
बन्धनों को
बहा ले जाता है
कूड़ा-करकट और गन्दगी
अनावश्यक संग्रह और
ख़तरनाक होती बन्दगी
सभ्यताएँ इसके किनारे पर
हुई हैं विकसित और ध्वस्त
इतिहास तैरता रहा है
इसकी धारा में
और यह बहता रहा है
दो किनारों के बीच
बनकर मध्यस्थ
इसके होने से ही होती है
आंख में भेदने की ताक़त
कलम में चीख़ने की
यह न होता तो आदमी
नहीं पहनता कपड़े
न तमीज़ सीखता
नहीं बोलने की
यह बहता है
तो पैदा होती है ऊर्जा
नृत्य करता है सृजन
कुलबुलाने लगती है कुंठाएँ
ठहरने लगता है जीवन
यह जो तरल है
गाढ़ा होता जा रहा है लगातार
इसे पिघलाने लिये
ज़रूरी है
सम्बन्धों की ऊष्मा
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