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ग़ज़ल में दर्द की तासीर
सब्र उनका भी
सर बुलन्द कर गया
हर गाम पर

 

सर बुलन्द कर गया

शाइस्तगी से दर्द सर बुलन्द कर गया
अपने ही घर में हमको नज़रबन्द कर गया

चेहरे की झुर्रियों में हरिक रोज़ इक नवीन
कोई फ़िक्र का अशआर कलमबन्द कर गया

शानों में उस ग़ुमान की ताक़त नहीं रही
जब से वो हर सवाल मुहरबन्द कर गया।

जिसने बदल के रख दिए जीने के मायने
मैं फिर वही मलाल बहरबन्द कर गया।

साँसों में इत्मिनान की ख़ुशबू सहेजकर
वो कौन ज़िन्दगी को हुनरमन्द कर गया।

२४ नवंबर २०१४

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