अनुभूति में
विजय प्रताप आँसू
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कुछ कमाल होने दो
निर्भया के बाद भी
पंख फड़फड़ाता हूँ
वक्त सा हुनर दे दो
सवाल उठाती है जिंदगी
अंजुमन में-
कुछ साजिशों से जंग है
ग़ज़ल में दर्द की तासीर
सब्र उनका भी
सर बुलन्द कर गया
हर गाम पर |
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ग़ज़ल में
दर्द की तासीर
ग़ज़ल में दर्द की तासीर को कुछ कम किया जाए
न जाने किसका सोया दर्द फिर से सर उठा जाए
सवालों को हवा देने की फिर से गलतियाँ मत कर
न जाने किसकी बोई आग तेरा घर जला जाए
हवाएँ जब किसी की शह पर अपना रुख बदलती हों
परिन्दों के शहर में कब तलक बचकर रहा जाए
उसूलों से तरक्की की अदावत जानता हूँ मैं
मगर कुछ सरफरोशी आदतों का क्या किया जाए
उजालों की अदालत में अँधेरे मुन्सिफों जैसे
शराफत का मुक़दमा फिर भला कैसे लड़ा जाए
२४ नवंबर २०१४ |