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सब्र उनका भी
सर बुलन्द कर गया
हर गाम पर

 

पंख फड़फड़ाता हूँ

जब भी ख़ुद के करीब आता हूँ
पंख मैं खूब फड़फड़ाता हूँ

कौन जाएगा उँगलियाँ थामे
राह चलते मैं डगमगाता हूँ

शाम होते ही अपनी मंज़िल की
आज भी राह भूल जाता हूं

भीड़ के बीच भी रहा तनहा
जाने किससे मैं ख़ौफ खाता हूँ

साथ जिनके मैं बैठता–उठता
बात करता हूँ सकपकाता हूँ

हर गली, हर शहर नुमाइश है
मैं ही अहमक हूँ जो छुपाता हूँ

१ मार्च २०१६

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