अनुभूति में
विजय प्रताप आँसू
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कुछ कमाल होने दो
निर्भया के बाद भी
पंख फड़फड़ाता हूँ
वक्त सा हुनर दे दो
सवाल उठाती है जिंदगी
अंजुमन में-
कुछ साजिशों से जंग है
ग़ज़ल में दर्द की तासीर
सब्र उनका भी
सर बुलन्द कर गया
हर गाम पर |
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निर्भया के बाद भी
इन्कलाबी तख्तियों का, क्या किया जाए
सिर उठाती मुठ्ठियों का, क्या किया जाए
जब जजों के फैसलों में, हो निराशा साफ
गोलघर की चुप्पियों का, क्या किया जाए
वे अखाड़े में रहें तो, ठोकें चाहे ताल
सिर्फ नूरा-कुश्तियों का, क्या किया जाए
हाँ, यहाँ अपराधियों के, भी कई हक हैं
किन्तु बेबस बेटियों का क्या किया जाए
बात अपने पर गयी तो चुटकियों में हल
पर रिहा उन कैदियों का क्या किया जाए
निर्भया के बाद भी यदि हस्तिनापुर मौन
फिर सियासी पारियों का क्या किया जाए
१ मार्च २०१६ |