सराबों में यकीं के
सराबों में यकीं के हम को रहबर छोड़ जाते हैं
दिखा कर ख्वाब, अपना रास्ता वो मोड़ जाते हैं
शजर काँटों से रहता है भरा ये
किसलिए अक़्सर
कि जब भी फूल आते हैं तो राही तोड़ जाते हैं
ज़बाँ तक आते आते सच, निकलता
झूठ है आखिर
ख़याल ऐसे समय इखलाक के झिंझोड़ जाते हैं
मरासिम तोड़ना तो दोस्त फितरत
है हसीनों की
मगर फिर किसलिए आ कर दिलों को जोड़ जाते हैं
सियासत के ये मोहरे हैं ये
दहशतगर्द दीवाने
इशारे पर किसी के शहर में बम छोड़ जाते हैं
ए कान्हां जी बिगाड़ा आप का
मैंने है आखिर क्या
जो आकर रोज़ मेरी आप मटकी फोड़ जाते हैं
१२ अप्रैल २०१० |