वो दर्द वो बदहाली
वो दर्द वो बदहाली के मंज़र नहीं बदले
बस्ती में अँधेरे से भरे घर नहीं बदले।
हमने तो बहारों का, महज़ ज़िक्र सुना है
इस गाँव से तो, आज भी पतझर नहीं बदले।
खंडहर पे इमारत तो नई हमने खड़ी की,
पर भूल ये की, नींव के पत्थर नहीं बदले।
बदल है महज़ कातिल और उनके मुखौटे
वो कत्ल के अंदाज़, वो खंजर नहीं बदले।
उस शख़्स की तलाश मुझे आज तलक है,
जो शाह के दरबार में, जाकर नहीं बदले।
कहते हैं लोग हमसे बदल जाओ ऐ शायर
पर हमने शायरी के, ये तेवर नहीं बदले।
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