आदमी के साथ
पहले ही लाख डर हैं हरेक आदमी के
साथ।
उसपे भी मौत जोड़ी गई ज़िंदगी के साथ।।
ज़्यादा चमक में लोगों ने देखा न
हो मगर।
हैं खूब अँधेरे भी नई रोशनी के साथ।।
मुमकिन नहीं कि सबके हमेशा खुशी
मिले।
होते हैं धूप-छाँव-से ग़म भी खुशी के साथ।।
उसकी चिता पे जिस्म ही, उसका नहीं
जला।
खुशियाँ भी घर की राख हुई थीं उसी के साथ।।
सदियों की ले थकन भी निरंतर सफ़र
में ही
रहने को रहे लाख भँवर भी नदी के साथ।।
इक हादसे में कैसे नशेमन उजड़ गए
देखा था सब शजर ने बड़ी बेबसी के साथ।।
9 मई 2007
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