तमाम घर को
तमाम घर को बयाबां बनाके रखता
था
पता नहीं वो दीये क्यों बुझाके रखता था
बुरे दिनों के लिए उसने
गुल्लकें भर ली
मैं दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था।
वो तितलियों को सिखाता था
व्याकरण यारो!
इसी बहाने गुलों को डराके रखता था।
नदी का क्या पता इस तरह दिल बहल
जाए
मैं उसपे काग़ज़ी कश्ती बनाके रखता था।
मेरे फिसलने का कारण भी है यही
शायद
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था।
हमेशा बात वो करता था घर बनाने
की
मगर मचान का नक्शा छुपाके रखता था।
न जाने कौन चला आए वक्त का मारा
कि मैं किवाड़ से सांकल हटाके रखता था।
वो संगसार न होता तो और क्या
होता
हुजूरे-ख़ास में सर को उठाके रखता था।
१६ अप्रैल २००३ |