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चैन के पल
टूट जाने पर
पिघलकर पर्वतों से
मन कभी घर में रहा
हर नया मौसम

 

मन कभी घर में रहा

मन कभी घर में रहा, घर से कभी बाहर रहा
पर तुम्हारी फूल-जैसी ख़ुशबुओं से तर रहा

बर्फ की पौशाक उजली है, मगर पर्वत से पूछ
बर्फ जब पिघली तो क्या बाकी रहा? पत्थर रहा

तेरे आँचल में सही, मेरी हथेली में सही
आँधियाँ आती रहीं, लेकिन दिया जलकर रहा

सिर्फ शब्दों का दिलासा माँगने वाले थे लोग
सोचिए तो कर्ज़ किस-किस शख़्स का हम पर रहा

हौसला मरता नहीं है संकटों के दरमियाँ
हर तरफ काँटे थे लेकिन फूल तो खिलकर रहा

१३ फरवरी २०१२

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