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अनुभूति में देवमणि पांडेय
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कौन सुने अब
खूब लुभाती मुंबई
चाहत के हर मुकाम पर
छम छम करती
जग में
दिल के ज़ख़्मों को
दिलवालों की बस्ती
नहीं चलता
ना हँसते हैं ना रोते है
हाल अपना

 

  ना हँसते हैं ना रोते हैं

ना हँसते हैं ना रोते हैं
ऐसे भी इंसां  होते हैं,

वक्त बुरा दिन दिखलाए तो
अपने भी दुश्मन होते हैं।

दुख में रातें कितनी तन्हा
दिन कितने मुश्किल होते हैं।

खुद्दारी से जीने वाले
अपने बोझ को खुद ढोते हैं।

दिल की धरती है वो धरती
हम जिसमें आँसू बोते हैं।

बात-बात में डरने वाले
गहरी नींद में में कम सोते हैं।

सपने हैं उन आँखों में भी
फुटपाथों पर जो सोते हैं

२८ अप्रैल २००८

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